Friday 19 April 2013

इंटरनेट के व्यावहारिक खतरे !!

इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग साइट्स का विस्तार जहां लोगों को जोड़ रहा है, वहीं संचार की विकसित होती यह नई संस्कृति अपने साथ कई समस्याएं भी ला रही हैं। भारत इसका अपवाद नहीं है, जहां तकनीक का विस्तार तो बहुत तेजी से हो रहा है, पर उसका प्रयोग किस तरह होना है, यह अभी सीखा जाना है। एक नई चुनौती के साथ इसका सबसे अधिक असर बच्चों पर हो रहा है। अमूमन खेल के मैदान पर होने वाली बच्चों की शरारतें- जैसे एक-दूसरे को चिढ़ाना या परेशान करना- सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिये अब आभासी दुनिया में देखी जा सकती हैं। फेसबुक, ऑरकुट या अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट्स का इस्तेमाल दोधारी तलवार की तरह होता है, इसलिए यदि सावधानी नहीं बरती जाए, तो इससे बच्चों को नुकसान हो सकता है। सावधानी नहीं बरतने से बच्चे अक्सर 'साइबर बुलिंग' का शिकार हो जाते हैं। साइबर बुलिंग से मतलब किसी वयस्क या बच्चे को किसी अन्य बच्चे या वयस्क द्वारा डिजिटल प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल (इंटरनेट या मोबाइल आदि) कर प्रताड़ित या मानसिक रूप से परेशान किए जाने से है। टेलीनॉर द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, 2012 तक भारत में चार करोड़ बच्चे इंटरनेट पर सक्रिय थे, जो 2017 में तीन गुने से भी ज्यादा बढ़कर 13 करोड़ हो जाएंगे। ये आंकड़े जहां भविष्य के प्रति उम्मीद जगाते हैं, वहीं कुछ सवाल भी खड़े करते हैं। आखिर इंटरनेट पर जो बच्चे हैं, वे साइबर दुनिया में कितने सुरक्षित हैं, उन्हें इंटरनेट के सलीकों के बारे में कितनी जानकारी है? आंकड़े इसकी अच्छी तस्वीर नहीं पेश कर रहे हैं। माइक्रोसॉफ्ट द्वारा जारी किए गए ग्लोबल यूथ ऑनलाइन सर्वे के मुताबिक, साइबर बुलिंग का शिकार होने के मामले में भारत के बच्चे दुनिया में तीसरे नंबर (53 प्रतिशत) पर हैं। पहले दो स्थान पर क्रमशः चीन (70 प्रतिशत) और सिंगापुर (58 प्रतिशत) हैं। जागरूकता के अभाव में बच्चों को यह पता नहीं होता कि साइबर बुलिंग का शिकार होने पर उन्हें क्या करना चाहिए। नतीजतन वे अकेलेपन और अवसाद का शिकार हो जाते हैं। ऐसे में अभिभावकों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। वास्तव में तकनीकी रूप से भारत संक्रमण काल से गुजर रहा है, जिसमें युवा पीढ़ी पिछली पीढ़ी की तुलना में कहीं अधिक साइबर एक्टिव है। अभिभावक मानते हैं कि प्रतिस्पर्धी दुनिया में बच्चों को साइबर दुनिया से जोड़ना उनके भविष्य के लिहाज से जरूरी है। वे बच्चों को इंटरनेट के हवाले कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं, जबकि उन्हें यहां भी सतर्कता बरतने की जरूरत है। व्यापक रूप से देखा जाए, तो अब समय आ गया है कि नैतिक शिक्षा के साथ इंटरनेट आधारित व्यवहार और शिष्टाचार को भी स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए, ताकि बच्चों को पता चल सके कि सम्मान और गरिमा के साथ इंटरनेट पर कैसे व्यवहार किया जाना चाहिए, या उनका एक छोटा-सा मजाक दूसरे पर कितना भारी पड़ सकता है। समस्या का कानूनी पहलू भी खासा उत्साहजनक नहीं है। भारत का साइबर बुलिंग कानून बच्चों और वयस्कों में कोई अंतर नहीं करता। इसमें बच्चों के लिए कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं है। जबकि बाल मस्तिष्क पर साइबर बुलिंग का गंभीर प्रभाव पड़ता है, जो उन्हें नकारात्मक भी बना सकता है। भारत में 2000 में सूचना प्रोद्यौगिकी कानून बना। वर्ष 2008 में इसमें कुछ संशोधन किए गए। इसकी धारा 66-ए में साइबर बुलिंग से संबंधित मामले आते हैं, जिसे अब दंडनीय अपराध बना दिया गया है। पर बच्चों के साथ होने वाली ऐसी घटनाओं को अलग परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश बच्चों को साइबर बुलिंग से बचाने के लिए हेल्पलाइन सेवा उपलब्ध कराते हैं, पर भारत में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। अगले तीन वर्ष में भारत दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा इंटरनेट उपभोक्ताओं को जोड़ेगा और देश की कुल जनसंख्या का 28 प्रतिशत हिस्सा इंटरनेट से जुड़ा होगा, जो चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा जनसंख्या समूह होगा। पर हम साइबर दुनिया को अपने बच्चों के लिए सुरक्षित बना पाएंगे इसका उत्तर मिलना अभी बाकी है।

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